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ग्रीष्मकाल शुरू होते ही गावों में ही नहीं प्रदेश के जंगलों में आग लगने का दौर शुरू हो जाता है। आग द्वारा मचाई जाने वाली तबाही एवं बर्वादी से हजारों लोग बेघर होकर खुले आसमान के नीचे जीवन गुजारने को बिवश हो जाते हैं। सरकार द्वारा प्रतिवर्ष अग्निपीड़ितों को करोड़ो रुपए का मुआवजा तो दे दिया जाता है। परंतु आग रोकने या उसके त्वरित नियंत्रण की व्यवस्था करने में आजादी के बाद अब तक रहीं प्रदेश की सरकारें असफल रहीं हैं। इसी तरह जंगलों में लगने वाली आग अकूत वन संपदा को स्वाहा कर देती है और इसकी बिनाशलीला से वन्यजीवन पर भी विपरीत प्रभाव पड़ता है। प्रतिवर्ष आग अपना इतिहास दोहराकर नुकसान के आंकड़ों को बढ़ा देती है। प्रदेश की सरकार ज्रंगलों को भी आग से बचाने के लिए कोई सार्थक कदम नहीं उठा रही है। यूपी के एकमात्र दुधवा नेशनल पार्क के जंगलों में बार-बार होने वाली दावाग्नि को रोकने के लिए समुचित आधुनिक साधनों और संसाधनों की भारी कमी है। इससे लगातार लगने वाली आग से दुधवा के जंगल का न सिर्फ पारिस्थितिक तंत्र गड़बड़ा रहा है, बल्कि जैव-विविधता के अस्तित्व पर भी संकट खड़ा हो गया है। दुधवा नेशनल पार्क प्रशासन द्वारा जंगल में दावाग्नि नियंत्रण की तमाम ब्यवस्थाएं फायर सीजन से पूर्व की जाती हैं। अगर आग को रोकने के लिए कराए जाने वाले कार्यो को पूरी निष्ठा व ईमानदारी से कराया जाए तो आग को विकराल होने से पहले उस पर नियंत्रण हो सकता है। किंतु निज स्वार्थों में कराए गए दावाग्नि नियंत्रण के कार्य एवं सभी तैयारियां फायर सीजन यानी माह फरवरी से 15 जून के मध्य में आए दिन जंगल में लगने वाली आग का रूप जब भी बिकराल होता है तब वह मात्र कागजी साबित होती हैं। यह बात अपनी जगह ठीक है कि जंगल में कई कारणों से आग लगती है या फिर लगााई जाती है। इसमें समयबद्ध एवं नियंत्रित आग विकास है किंतु अनियंत्रित आग विनाशकारी होती है। दुधवा के जंगल में ग्रासलैंड मैनेजमेंट एवं वन प्रवंधन के लिए नियंत्रित आग लगाई जाती है। इसके अतिरिक्त शरारती तत्वों अथवा ग्रामीणजनों द्वारा सुलगती बीड़ी को जंगल में छोड़ देना आग का कारण बन जाता है। जबकि वंयजीवों के शिकारी भी पत्तों से आवाज उत्पन्न न हो इसलिए जंगल में आग लगा देते हैं। दुधवा नेशनल पार्क के वनक्षेत्र की सीमाएं नेपाल से सटी हैं और इसके चारों तरफ मानव बस्तियां आबाद हैं। इसके चलते जंगल में अनियंत्रित आग लगने की घटनाओं में लगातार वृद्धि हो रही है। इसका भी प्रमुख कारण है कि नई घास उगाने के लिए मवेशी पालक ग्रामीण जंगल में आग लगा देते हैं जो अपूर्ण ब्यवस्थाओं के कारण अकसर विकाराल रूप धारण करके जंगल की बहुमूल्य वन संपदा को भारी नुकसान पहुंचाती है तथा वनस्पितियों एवं जमीन पर रेंगने वाले जीव-जंतुओं को जलाकर भस्म बना देती है। विगत के दो वर्षों में कम वर्षा होने के बाद भी बाढ़ की विभीषिका के कहर का असर वनक्षेत्र पर ब्यापक रूप से पड़ा है। बाढ़ के पानी के साथ आई मिट्टी-बालू इत्यादि की हुई सिलटिंग से जंगल के अन्दर तालाबों, झीलों, भगहरों की गहराई कम हो गई है। स्थिति यह है कि जिनमें पूरे साल भरा रहने वाला पानी वंयजीवों-जंतुओ को जीवन प्रदान करता था वह प्राकृतिक जलश्रोत अभी से ही सूखने लगे हैं। इसके कारण जंगल में नमी की मात्रा कम होने से कार्बनिक पदार्थ और अधिक ज्वलनशील हो गए हैं। जिसमें आग की एक चिंगारी सैकड़ों एकड़ वनक्षेत्र का जलाकर राख कर देती है। सन् 2001 से 2007 तक दुधवा के जंगलों में आग लगने के कारणों का अध्ययन एवं विश्लेषण दुधवा पार्क के एक उपप्रभागीय वनाधिकारी द्वारा किया गया था। जिसके अनुसार सन् 2001-02 में औसत वर्षा होने के कारण जंगल में आग लगने की घटनाएं अधिक रहीं किंतु नुकसान कम हुआ। सन् 2003-04 में अधिक वर्षा होने के कारण आग से जलने के लिए आवश्यक कार्वनिक पदार्थों में नमी की अधिकता रही जिससे आग लगने की हुई 36 घटनाओं में 16.76 हेक्टेयर वनक्षेत्र प्रभावित हुआ। जबकि सन् 2005 से 2007 के मध्य कम वर्षा के कारण कार्बनिक पदार्थों की नमी कम रही और आग लगने की होने वाली 36 घटनाओं में दावाग्नि का क्षेत्रफल एक हेक्टेयर अधिक रहा था। बल्कि सन् 2008-09 में कम वर्षा के कारण दावाग्नि की हुई घटनाओं में प्रभावित क्षेत्रफल बढ़ने से जंगल को भारी क्षति पहुंची। इस साल भी जंगल में आग लगने का सिलसिला जारी है। इससे हरे-भरे जंगल की जमीन पर दूर तक राख ही राख दिखाई देती है। लगातार लगने आग से जंगल में कई प्रजातियों के अस्तित्व पर प्रश्नचिन्ह लगा दिए हैं। विशेषज्ञों का मानना है कि अनियंत्रित आग बड़ी मात्रा में कार्बन डाईआक्साइड और ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन करके ग्लोबल वार्मिंग बढ़ा रही हैं और इससे जंगल की जैव-विविधता के अस्तित्व पर भी खतरा खड़ा हो जाता है। 886 वर्ग किलोमीटर में फैले दुधवा के जंगल में आग नियंत्रण के लिए फायर लाईन बनाई जाती हैं तथा आग लगने का तुरंत पता लग जाए इसके लिए तमाम संवेदनसील स्थानों पर वाच टावर स्थापित किए गए हैं। किंतु आग लगने पर उसके नियंत्रण हेतु तुरंत मौके पर पहुंचने के लिए रेंज कार्यालय या फारेस्ट चौकी पर वाहन नहीं हैं ऐसी स्थिति में कर्मचारी जब तक सायकिलों से या दौड़कर वहां पहुंचते हैं तब तक आग जंगल को राख में बदल चुकी होती है। जंगल के समीपवर्ती ग्रामीण भी अब आग को बुझाने में वन कर्मचारियों को इसलिए सहयोग नहीं देते हैं क्योंकि 1977 में क्षेत्र के जंगल को दुधवा नेशनल पार्क बना दिया गया। इसके बाद पार्क कानूनों के अंतर्गत आसपास के सैकड़ों गावों को पूर्व में वन उपज आदि की मिलने वाली सभी सुविधाओं पर प्रतिवंध लगा दिया गया है। जबकि इससे पहले आग लगते ही गावों के सभी लोग एकजुट होकर उसे बुझाने के लिए दौड़ पड़ते थे। इस बेगार के बदले में उनको जंगल से घर बनाने के लिए खागर, घास-फूस, नरकुल, रंगोई, बांस, बल्ली आदि के साथ खाना पकाने के लिए गिरी पड़ी अनुपयोगी सुखी जलौनी लकड़ी एवं अन्य कई प्रकार की वन उपज का लाभ मिल जाया करता था। लेकिन बदलते समय के साथ अधिकारियों का अपने अधीनस्थों के प्रति व्यवहार में बदलाव आया तो कर्मचारियो में भी परिवर्तन आता चला गया। स्थिति यह हो गई है कि कर्मचारी वन उपज की सुविधा देने के नाम पर ग्रामीणों का आर्थिक शोषण करने के साथ ही उनका उत्पीड़न करने से भी परहेज नहीं करते हैं। जिससे अब ग्रामीणों का जंगल के प्रति पूर्व में रहने वाला भावात्मक लगाव खत्म हो गया है। उधर आग लगने की सूचना पर पार्क अधिकारियों का मौके पर न पहुंचना और अधीनस्थों को निर्देश देकर कर्तव्य से इतिश्री कर लेना यह उनकी कार्यप्रणाली बन गई है। इससे हतोत्साहित कर्मचारियों में खासा असंतोष है और वे भी अब आग को बुझाने में कोई खास रूचि नहीं लेते है। जिससे जंगल को आग से बचाने का कार्य और भी दुष्कर होता जा रहा है। परिणाम दुधवा के जंगलों में लग रही अनियंत्रित आग वंयजीवों और वन संपदा को भारी क्षति पहुंचा रही है। पार्क के उच्च यह स्वीकार करते हैं कि आग लगने की बढ़ रही घटनाओं का एक प्रमुख कारण है कि स्थानीय लोगों के बीच संवाद का न होना है। वह यह भी मानते हैं कि वित्तीय संकट, कर्मचारियों की कमी, निगरानी तंत्र में आधुनिक तकनीकियों का अभाव, अग्नि नियंत्रण की पुरानी पद्धति आदि ऐसे कई कारण हैं जिनकी वजह से जंगल की आग को रोकने की दिशा में प्रभावशाली कदम नहीं उठाए जा पा रहे हैं।
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