Menu
blogid : 4695 postid : 56

मौलिक अधिकारों का खुला उल्लंघन

DUDHWA NATURE
DUDHWA NATURE
  • 14 Posts
  • 6 Comments
सामायिक मुद्दा-
निरोधात्मक कार्यवाही के नाम पर मौलिक अधिकारों का खुला उल्लंघन
-देवेन्द्र प्रकाश मिश्र
उत्तर प्रदेश में विधानसभा के चुनाव को शांतिपूर्ण ढंग से सम्पन्न कराने के उद्देश्य से प्रशासन
द्वारा खानापूर्ति के लिए भारी संख्या में नागरिकों के खिलाफ भारतीय दंड प्रक्रिया संहिता यानी
सीआरपीसी की धाराओं में निरोधात्मक कार्यवाही की जा रही है। इसकी आड़ में भारतीय संविधान
में नागरिकों को प्राप्त मौलिक अधिकारों का खुले रूप से हनन किया जा रहा है। पुलिस द्वारा की
जाने वाली तथाकथित निरोधात्मक कार्यवाही के कारण सूबे की तहसीलों के एसडीएम न्यायालय में
जमानत कराने वालों की भीड़ का तांता लग रहा है। इन जमानतों पर निर्दोष ग्रामीणों को बेवजह
आर्थिक क्षति उठानी पड़ रही है। इस कार्यवाही में भारतीय दंड प्रक्रिया संहिता के प्रावधानों का
पालन करने के बजाय पुलिस मनमाने ढंग से महज रस्म अदायगी कर रही है। जिसमें गणमान्य
कहे जाने वालों को भी नहीं बक्सा जा रहा है।
भारतीय दंड प्रक्रिया संहिता में दिए गए प्राविधानों के अंतर्गत थाना पुलिस धारा 107 एवं 108 के
अंतर्गत शांतिभंग की आशंका की चालानी रिपोर्ट एक्ज्यूक्यूटिव मजिस्ट्रेट (एसडीएम) के न्यायालय
में पेश करती है। नियमानुसार इस चालानी रिपोर्ट में घटना का पूरा उल्लेख कागजों के साथ
अंकित होना चाहिए। उदाहरणार्थ संबंधित व्यक्ति के खिलाफ निरोधात्मक कार्यवाही का किया जाना
क्यों आवश्यक है। इससे पूर्व धारा 111 में स्पष्ट किया गया है कि न्यायालय में चालानी रिपोर्ट
प्राप्त होने के बाद संबंधित पक्ष को एक नोटिस जारी की जाए। जिसमें घटना का सारांश, सूचना
प्राप्त होने का आधार और यदि जमानतियों की आवश्यकता हो तो उसका भी विवरण अंकित होना
चाहिए। भारतीय दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 60 के अनुसार न्यायालय द्वारा प्रेषित सम्मन अथवा
वारंट दो प्रतियों में होना चाहिए। इसमें से एक प्रति संबंधित व्यक्ति को उपलब्ध कराई जानी
चाहिए। धारा 112 में नोटिस प्राप्त करने के बाद जब व्यक्ति न्यायालय में उपस्थित हो तब उसे
आरोप का सारांश बताए जाने का प्राविधान भी किया गया है। इसके साथ ही धारा 113 के
अनुसार जब धारा 111 के तहत जारी नोटिस के बाद भी विपक्षी न्यायालय में उपस्थित न हों तो
उनके खिलाफ सम्मन अथवा वारंट जारी होना चाहिए। भारतीय दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 114
में प्राविधान है कि सम्मन या वारंट के साथ न्यायालय के आदेश की प्रति भी भेजी जानी चाहिए।
धारा 115 में एक्ज्यूक्यूटिव मजिस्ट्रेट को यह अधिकार है कि वह निजी मुचलका प्राप्त कर करके
संबंधित व्यक्ति को न्यायालय में उपस्थित होने से व्यक्ति रूप से माफी प्रदान कर सकता है।
भारतीय जबकि दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 116 में जांच की प्रक्रिया तथा धारा 117 में जांच में
प्रथम दृष्टया मामला सही पाए जाने पर संबंधित व्यक्ति से जमानत लेने का निर्देश दिया गया है।
भारतीय दंड प्रक्रिया संहिता की उक्त धाराओं का मूल उद्देश्य समाज में शांति व्यवस्था बनाए रखना
होगा। लेकिन बदलते परिवेश एवं आए दिन होने वाले चुनावों ने भारतीय दंड प्रक्रिया संहिता के
मायनों को बदल डाला है।
प्रत्येक चुनाव चाहे वह ग्राम स्तर का हो या फिर लोकसभा अथवा विधानसभा का, उसमें पुलिस
द्वारा निरोधात्मक कार्यवाही किए जाने के नाम पर प्रत्येक ग्राम से दर्जनों निर्दोष व्यक्तियों के
खिलाफ शांतिभंग की आशंका की कार्यवाही की चालानी रिपोर्ट एक्ज्यूक्यूटिव मजिस्ट्रेट (एसडीएम)
के न्यायालय में भेजने की परंपरा सी चल पड़ी है। थोक के भाव में प्राप्त होने वाली चालानी
रिपोर्टो का अध्ययन कानून की मंशा के अनुसार एसडीएम नहीं कर पाते हैं। इसका भी मुख्य
कारण है कि तमाम प्रशासनिक कार्यो में अति व्यस्त रहने के कारण एसडीएम को इतना पर्याप्त
समय और मौका ही नहीं मिल पाता है कि वह स्वयं चालानी रिपोर्ट को पढ़ सकें। इसीलिए
नोटिस जारी होने की समस्त औपचारिकताएं न्यायालय के कर्मचारी पूरी कर देते हैं और एसडीएम
समय निकालकर नोटिस व पत्रावलियों की आर्डरशीट पर दस्तखत करने की रस्म अदायगी कर
देते हैं। इसके कारण धारा 111 के तहत दो प्रतियों में नोटिस जारी करने के बजाय नोटिस एक
ही प्रति में जारी कर दी जाती है।
इसका फायदा उठाते हुए पुलिस भी अपनी बचत के लिए असमाजिक तत्वों के साथ ही तमाम
निर्दोष और गणमान्य कहे जाने वाले नागरिकों के खिलाफ निरोधात्मक कार्यवाही करके उनका
उत्पीड़न कर रही है। पुलिस द्वारा दृष्टिहीन, नाबालिग और बृद्ध लोगों के खिलाफ की जाने वाली
निरोधात्मक कार्यवाई अक्सर अखबारों की सुर्खियों में दिखाई देती रहती हैं। इसके बाद भी पुलिस
की कार्यशैली में बदलाव का न आना अपने आप में ही प्रश्नचिन्ह है। भारतीय संविधान में प्रत्येक
व्यक्ति को स्वतंत्रता का मौलिक अधिकार प्रदान किया गया है। साथ ही मानवाधिकार आयोग द्वारा
भी व्यक्तियों के मूलभूत अधिकारों का हनन न करने के स्पष्ट निर्देश दिए गए हैं और पुलिस को
मित्र बनने का पाठ भी पढ़ाया जाता है। इसके बाद भी सूबे में हो रहे विधानसभा चुनाव में निर्दोष
नागरिकों को तथाकथित रस्म अदायगी के नाम पर पुलिस के द्वारा की जाने वाली निरोधात्मक
कार्यवाही का सामना करना पड़ रहा है। इसे कतई न्यायोचित नहीं कहा जा सकता है।
(लेखक एडवोकेट और टिप्पणीकार है)

सामायिक मुद्दा-

निरोधात्मक कार्यवाही के नाम पर मौलिक अधिकारों का खुला उल्लंघन

उत्तर प्रदेश में विधानसभा के चुनाव को शांतिपूर्ण ढंग से सम्पन्न कराने के उद्देश्य से प्रशासन  द्वारा खानापूर्ति के लिए भारी संख्या में नागरिकों के खिलाफ भारतीय दंड प्रक्रिया संहिता यानी  सीआरपीसी की धाराओं में निरोधात्मक कार्यवाही की जा रही है। इसकी आड़ में भारतीय संविधान में नागरिकों को प्राप्त मौलिक अधिकारों का खुले रूप से हनन किया जा रहा है। पुलिस द्वारा की  जाने वाली तथाकथित निरोधात्मक कार्यवाही के कारण सूबे की तहसीलों के एसडीएम न्यायालय में  जमानत कराने वालों की भीड़ का तांता लग रहा है। इन जमानतों पर निर्दोष ग्रामीणों को बेवजह  आर्थिक क्षति उठानी पड़ रही है। इस कार्यवाही में भारतीय दंड प्रक्रिया संहिता के प्रावधानों का  पालन करने के बजाय पुलिस मनमाने ढंग से महज रस्म अदायगी कर रही है। जिसमें गणमान्य  कहे जाने वालों को भी नहीं बक्सा जा रहा है।  भारतीय दंड प्रक्रिया संहिता में दिए गए प्राविधानों के अंतर्गत थाना पुलिस धारा 107 एवं 108 के  अंतर्गत शांतिभंग की आशंका की चालानी रिपोर्ट एक्ज्यूक्यूटिव मजिस्ट्रेट (एसडीएम) के न्यायालय में पेश करती है। नियमानुसार इस चालानी रिपोर्ट में घटना का पूरा उल्लेख कागजों के साथ  अंकित होना चाहिए। उदाहरणार्थ संबंधित व्यक्ति के खिलाफ निरोधात्मक कार्यवाही का किया जाना  क्यों आवश्यक है। इससे पूर्व धारा 111 में स्पष्ट किया गया है कि न्यायालय में चालानी रिपोर्ट प्राप्त होने के बाद संबंधित पक्ष को एक नोटिस जारी की जाए। जिसमें घटना का सारांश, सूचना प्राप्त होने का आधार और यदि जमानतियों की आवश्यकता हो तो उसका भी विवरण अंकित होना चाहिए। भारतीय दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 60 के अनुसार न्यायालय द्वारा प्रेषित सम्मन अथवा वारंट दो प्रतियों में होना चाहिए। इसमें से एक प्रति संबंधित व्यक्ति को उपलब्ध कराई जानी चाहिए। धारा 112 में नोटिस प्राप्त करने के बाद जब व्यक्ति न्यायालय में उपस्थित हो तब उसे आरोप का सारांश बताए जाने का प्राविधान भी किया गया है। इसके साथ ही धारा 113 के अनुसार जब धारा 111 के तहत जारी नोटिस के बाद भी विपक्षी न्यायालय में उपस्थित न हों तो उनके खिलाफ सम्मन अथवा वारंट जारी होना चाहिए। भारतीय दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 114 में प्राविधान है कि सम्मन या वारंट के साथ न्यायालय के आदेश की प्रति भी भेजी जानी चाहिए।  धारा 115 में एक्ज्यूक्यूटिव मजिस्ट्रेट को यह अधिकार है कि वह निजी मुचलका प्राप्त कर करके संबंधित व्यक्ति को न्यायालय में उपस्थित होने से व्यक्ति रूप से माफी प्रदान कर सकता है। भारतीय जबकि दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 116 में जांच की प्रक्रिया तथा धारा 117 में जांच में प्रथम दृष्टया मामला सही पाए जाने पर संबंधित व्यक्ति से जमानत लेने का निर्देश दिया गया है। भारतीय दंड प्रक्रिया संहिता की उक्त धाराओं का मूल उद्देश्य समाज में शांति व्यवस्था बनाए रखना होगा। लेकिन बदलते परिवेश एवं आए दिन होने वाले चुनावों ने भारतीय दंड प्रक्रिया संहिता के मायनों को बदल डाला है। प्रत्येक चुनाव चाहे वह ग्राम स्तर का हो या फिर लोकसभा अथवा विधानसभा का, उसमें पुलिस द्वारा निरोधात्मक कार्यवाही किए जाने के नाम पर प्रत्येक ग्राम से दर्जनों निर्दोष व्यक्तियों के खिलाफ शांतिभंग की आशंका की कार्यवाही की चालानी रिपोर्ट एक्ज्यूक्यूटिव मजिस्ट्रेट (एसडीएम) के न्यायालय में भेजने की परंपरा सी चल पड़ी है। थोक के भाव में प्राप्त होने वाली चालानी रिपोर्टो का अध्ययन कानून की मंशा के अनुसार एसडीएम नहीं कर पाते हैं। इसका भी मुख्य कारण है कि तमाम प्रशासनिक कार्यो में अति व्यस्त रहने के कारण एसडीएम को इतना पर्याप्त समय और मौका ही नहीं मिल पाता है कि वह स्वयं चालानी रिपोर्ट को पढ़ सकें। इसीलिए नोटिस जारी होने की समस्त औपचारिकताएं न्यायालय के कर्मचारी पूरी कर देते हैं और एसडीएम समय निकालकर नोटिस व पत्रावलियों की आर्डरशीट पर दस्तखत करने की रस्म अदायगी कर देते हैं। इसके कारण धारा 111 के तहत दो प्रतियों में नोटिस जारी करने के बजाय नोटिस एक ही प्रति में जारी कर दी जाती है। इसका फायदा उठाते हुए पुलिस भी अपनी बचत के लिए असमाजिक तत्वों के साथ ही तमाम निर्दोष और गणमान्य कहे जाने वाले नागरिकों के खिलाफ निरोधात्मक कार्यवाही करके उनका उत्पीड़न कर रही है। पुलिस द्वारा दृष्टिहीन, नाबालिग और बृद्ध लोगों के खिलाफ की जाने वाली  निरोधात्मक कार्यवाई अक्सर अखबारों की सुर्खियों में दिखाई देती रहती हैं। इसके बाद भी पुलिस की कार्यशैली में बदलाव का न आना अपने आप में ही प्रश्नचिन्ह है। भारतीय संविधान में प्रत्येक व्यक्ति को स्वतंत्रता का मौलिक अधिकार प्रदान किया गया है। साथ ही मानवाधिकार आयोग द्वारा भी व्यक्तियों के मूलभूत अधिकारों का हनन न करने के स्पष्ट निर्देश दिए गए हैं और पुलिस को मित्र बनने का पाठ भी पढ़ाया जाता है। इसके बाद भी सूबे में हो रहे विधानसभा चुनाव में निर्दोष नागरिकों को तथाकथित रस्म अदायगी के नाम पर पुलिस के द्वारा की जाने वाली निरोधात्मक कार्यवाही का सामना करना पड़ रहा है। इसे कतई न्यायोचित नहीं कहा जा सकता है

(लेखक एडवोकेट और टिप्पणीकार है)

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply

    Your email address will not be published. Required fields are marked *

    CAPTCHA
    Refresh